Sunday, 12 August 2012

लोग पत्थर हैं


ज़रा ज़रा सी बात का तमाशा किये हैं सब,
दिल है नाज़ुक मेरा लोग पत्थर हैं,

किस किस के गिरेबाँ में झाँक कर देखिये,
लब पर हँसी इनके हाथों में खंजर है,

खिलते हैं जो रंगीन फूल इनके बगीचों में,
खून-ए-दिल मेरा उनके अन्दर है,
मै तो खामोश रहती हूँ ये सोच कर,
जाने किस किस की नज़र अब मुझपर है,

उम्र बीत रही है कितने कारवाँ चले गए,
जाने किस उलझन में हम अब भी कैद हैं,

कर दिया तो हमने सब का हिसाब है,
फिर भी ना जाने कितनो के कर्ज़दार हैं,

कुछ अजब ज़िन्दगी के फलसफे से हैं,
नज़दीक हैं जो मेरे वही दिल से दूर हैं ...

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