Monday, 13 August 2012

हिंसा की आग ...

आग के शोले बरस रहें है
दिल टूटे सब टूट रहें हैं
कौन है जाने इसके पीछे
क्यूँ आपस में झगड़ रहे हैं .....

तूने मैंने करके सब
मिट्टी में मिला रहे हैं
...
धर्म जाती के भेदभाव
कर अपना लहू क्यूँ बहा रहे हैं ....

पेंच लड़ाये राजनीती
कानून बना है खेल
अपनी अपनी सोचे हैं सब
कहीं वो बच्चे बिलख रहे हैं .....

जिनका है सामर्थ
वो मूक बने बैठे हैं
और बचे हैं जो हम
जैसे वो कविता बना रहे हैं ..... (इन्दु लडवाल)

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