Sunday 12 August 2012

घटाएँ सावन की

मुझे तुम भीग जाने दो,
इस मौसम में ज़रा,
हवाएँ सर्द हैं लेकिन,
अंदर शोला है ज़रा,

यूँ तो बयाँ करना बरसात को बड़ा मुश्किल है दोस्तों पर कुछ अल्फाज़ जो साथ दे गए वही के रही हूँ.....

घटाएँ सावन की फिर,
घिर घिर आती हैं,
बावरे मन को कहीं,
दूर उड़ा ले जाती है,

यूँ तो कहने को,
पानी ही है ये दोस्तों,
पर बदन को छूते ही,
आग सी लग जाती है .....(इंदु लड्वल)

बयाँ करने को और भी अल्फाज़ बांकी हैं मगर ये दो पंक्तियाँ ही काफी है शायद

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